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सेंसर बोर्ड द्वारा नामदेव ढसाल की कविताओं को हटाने की शर्त, कांग्रेस प्रवक्ता ने उठाई कड़ी आपत्ति

Updated on: 28 February, 2025 07:01 PM IST | mumbai
Hindi Mid-day Online Correspondent | hmddigital@mid-day.com

हाल ही में फिल्म `चल हल्लाबोल` को लेकर विवाद उत्पन्न हुआ, जब सेंसर बोर्ड ने उसमें शामिल नामदेव ढसाल की कविताओं को हटाने की शर्त रखी.

X/Pics, Sureshchandra Rajhans

X/Pics, Sureshchandra Rajhans

नामदेव ढसाल, दलित पैंथर आंदोलन के प्रणेता और प्रसिद्ध कवि, ने अपनी लेखनी के माध्यम से समाज के दलित वर्ग के दर्द और संघर्ष को बयां किया. उनकी कविताएं न केवल शोषण और भेदभाव के खिलाफ एक गहरी आवाज बनीं, बल्कि उन्होंने अपने ओजस्वी शब्दों से मराठी साहित्य को नया आयाम भी दिया. उनका लेखन सामाजिक न्याय और समानता की ओर एक मजबूत कदम था, जो आज भी उन विचारों को जीवन्त बनाए रखता है. अंबेडकरवादी विचारधारा के समर्थक होने के नाते, ढसाल ने समाज के उन हिस्सों की आवाज़ उठाई जो सदियों से हाशिए पर थे और उनकी स्थिति को सुधारने की दिशा में कार्य किया.

हाल ही में एक फिल्म `चल हल्लाबोल` को लेकर विवाद सामने आया है, जो दलित पैंथर और युवा क्रांति दल के आंदोलनों के इतिहास को प्रस्तुत करती है. इस फिल्म में नामदेव ढसाल की कविताएं शामिल की गई हैं, लेकिन सेंसर बोर्ड ने इन कविताओं को हटाने की शर्त रखी है. यह कदम विशेष रूप से चौंकाने वाला था, क्योंकि सेंसर बोर्ड के अधिकारियों ने यह सवाल उठाया था, "नामदेव ढसाल कौन हैं?" यह सवाल महाराष्ट्र की सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान के खिलाफ है, और अंबेडकरवादी विचारों का स्पष्ट अपमान है.


इस पर प्रतिक्रिया देते हुए कांग्रेस प्रवक्ता सुरेश चंद्र राजहंस ने कहा कि जो अधिकारी नामदेव ढसाल को नहीं जानते, वे सेंसर बोर्ड में नहीं रह सकते. उन्होंने यह भी कहा कि यह केवल नामदेव ढसाल का अपमान नहीं है, बल्कि यह महाराष्ट्र और अंबेडकर के विचारों का भी अपमान है. उनके अनुसार, जो अधिकारी इस महान कवि से अनजान हैं, उन्हें तुरंत जानकारी दी जानी चाहिए और ऐसे अधिकारियों को बर्खास्त किया जाना चाहिए.


नामदेव ढसाल ने अपने साहित्य के माध्यम से दलित समाज की पीड़ा और अन्याय के खिलाफ आवाज उठाई. उनकी कविताएं समाज में व्याप्त असमानता के खिलाफ एक विद्रोह थीं. उन्होंने साहित्य के जरिए यह संदेश दिया कि दलितों को केवल मानवाधिकार नहीं, बल्कि सम्मान और समानता का अधिकार भी होना चाहिए. सेंसर बोर्ड के अधिकारियों का यह रवैया न केवल असंवेदनशीलता को दर्शाता है, बल्कि यह भी बताता है कि वे सामाजिक न्याय और समानता के मुद्दों से कितने अजनबी हैं.

इसलिए सुरेश चंद्र राजहंस का यह कहना बिल्कुल उचित है कि इन अधिकारियों को सार्वजनिक रूप से माफी मांगनी चाहिए, क्योंकि उनका यह कदम न केवल नामदेव ढसाल का, बल्कि समग्र दलित समाज और अंबेडकरवाद का भी अपमान है.


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