Updated on: 16 July, 2025 03:56 PM IST | Mumbai
Hindi Mid-day Online Correspondent
मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और न्यायमूर्ति संदीप मार्ने की पीठ ने याचिकाकर्ता वकीलों के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाते हुए कहा कि वे पीड़ित व्यक्ति या जूते के पंजीकृत मालिक या स्वामी नहीं हैं.
बॉम्बे उच्च न्यायालय. फ़ाइल चित्र
बॉम्बे हाईकोर्ट ने बुधवार को इतालवी फैशन हाउस प्रादा पर प्रसिद्ध कोल्हापुरी चप्पलों के कथित अनधिकृत उपयोग के लिए मुकदमा करने के छह वकीलों के वैधानिक अधिकार पर सवाल उठाया और उनकी जनहित याचिका (पीआईएल) खारिज कर दी. एक न्यूज एजेंसी की रिपोर्ट के अनुसार मुख्य न्यायाधीश आलोक अराधे और न्यायमूर्ति संदीप मार्ने की पीठ ने याचिकाकर्ता वकीलों के अधिकार क्षेत्र पर सवाल उठाते हुए कहा कि वे पीड़ित व्यक्ति या जूते के पंजीकृत मालिक या स्वामी नहीं हैं.
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रिपोर्ट के मुताबिक हाईकोर्ट ने पूछा, "आपका (याचिकाकर्ताओं का) वैधानिक अधिकार क्या है?"अदालत ने पूछा, "आप इस कोल्हापुरी चप्पल के मालिक नहीं हैं. आपका अधिकार क्षेत्र क्या है और जनहित क्या है? कोई भी पीड़ित व्यक्ति मुकदमा दायर कर सकता है. इसमें जनहित क्या है?" याचिका में कहा गया था कि कोल्हापुरी चप्पलें, वस्तुओं के भौगोलिक संकेत (पंजीकरण एवं संरक्षण) अधिनियम के तहत भौगोलिक संकेत (जीआई) के रूप में संरक्षित हैं.
इसके बाद पीठ ने कहा कि जीआई टैग के पंजीकृत स्वामी अदालत में आकर अपनी कार्रवाई का समर्थन कर सकते हैं. रिपोर्ट के अनुसार अदालत ने याचिका खारिज कर दी और कहा कि वह बाद में विस्तृत आदेश पारित करेगी. अपने वसंत/ग्रीष्म संग्रह में, प्रादा ने अपने टो-रिंग सैंडल प्रदर्शित किए, जिनके बारे में याचिका में कहा गया है कि वे कोल्हापुरी चप्पलों से भ्रामक रूप से मिलते-जुलते हैं. इन सैंडल की कीमत 1 लाख रुपये प्रति जोड़ी है.
पीठ ने यह भी सवाल उठाया कि जनहित याचिका में निषेधाज्ञा कैसे दी जा सकती है और कहा कि प्रभावित पक्ष चाहें तो मुकदमा दायर कर सकता है. रिपोर्ट के मुताबिक उच्च न्यायालय ने कहा, "उल्लंघन की कार्रवाई का फैसला जनहित याचिका में नहीं किया जा सकता. यह पीड़ित व्यक्ति द्वारा दायर मुकदमे में ही होना चाहिए. साक्ष्यों पर गौर करना होगा." प्रादा की ओर से वरिष्ठ वकील रवि कदम ने दलील दी कि जीआई टैग एक ट्रेडमार्क है और वकीलों द्वारा दायर जनहित याचिका का विरोध किया.
इस महीने की शुरुआत में दायर याचिका में भारतीय कारीगरों को उनके डिज़ाइन की कथित नकल के लिए मुआवज़ा देने की मांग की गई थी. पुणे के छह वकीलों द्वारा दायर याचिका में कहा गया है, "कोल्हापुरी चप्पल महाराष्ट्र का सांस्कृतिक प्रतीक है." यह याचिका प्रादा समूह और महाराष्ट्र सरकार के विभिन्न अधिकारियों के खिलाफ दायर की गई थी. इसमें प्रादा को बिना अनुमति के अपने `टो-रिंग सैंडल` का व्यावसायीकरण और उपयोग करने से रोकने और लक्ज़री फ़ैशन समूह को सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगने और कोल्हापुरी चप्पलों के उपयोग को स्वीकार करने का निर्देश देने की मांग की गई थी.
याचिका में कहा गया था, "अदालत प्रादा के अनधिकृत जीआई उपयोग के खिलाफ स्थायी निषेधाज्ञा का भी आदेश दे और कारीगर समुदाय को प्रतिष्ठा और आर्थिक नुकसान की भरपाई करे." इसमें जीआई-पंजीकृत स्वामियों और कारीगर समुदाय के अधिकारों के उल्लंघन के लिए प्रादा के खिलाफ जांच की भी मांग की गई थी. अंतरिम आदेश के तहत, जनहित याचिका में कारीगर समुदाय को हर्जाना और मुआवजा देने की मांग की गई थी, जिसमें प्रादा को उनके सैंडल के विपणन, बिक्री या निर्यात पर अस्थायी रोक लगाने का आदेश भी शामिल था. इसमें दावा किया गया था कि प्रादा ने निजी तौर पर स्वीकार किया है कि उसका संग्रह भारतीय कारीगरों से प्रेरित है, लेकिन उसने अभी तक मूल कारीगरों को कोई औपचारिक माफ़ी या मुआवजा नहीं दिया है. जनहित याचिका में कहा गया है, "निजी तौर पर यह स्वीकारोक्ति आलोचना को टालने का एक सतही प्रयास मात्र प्रतीत होता है." याचिकाकर्ताओं ने समुदाय के अधिकारों की रक्षा करने और उसके सदस्यों के लिए मुआवज़ा सुनिश्चित करने के लिए अधिकारियों को निर्देश देने की मांग की थी.
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