माउंट मैरी बेसिलिका की स्थापना से जुड़ी कई रोचक और ऐतिहासिक कथाएँ प्रचलित हैं.
एक प्रचलित किंवदंती के अनुसार, लगभग 300 साल पहले मदर मैरी की मूर्ति अरब सागर में तैरती हुई एक कोली ईसाई मछुआरे को मिली. कहा जाता है कि उसे पहले ही इस मूर्ति के बारे में एक सपना आया था. स्थानीय लोग इसे चमत्कार मानते हैं, और इसी वजह से बांद्रा मेला मनाने की परंपरा शुरू हुई.
1761 में मूल मूर्ति का जीर्णोद्धार किया गया था, जिसमें मदर मैरी की गोद में शिशु था. तब से, श्रद्धालु माउंट मैरी के दर्शन के लिए पहाड़ी की तलहटी तक बैलगाड़ियों और नावों के माध्यम से आते रहे. बंबई से साल्सेट द्वीप तक नाव द्वारा यात्रा करना आम था, और इस दौरान कई लोग समुद्र पार करके अपनी श्रद्धांजलि अर्पित करते थे.
माउंट मैरी से जुड़ी सबसे रोचक कहानियों में से एक लेडी अवबाई जमशेदजी जीजीभॉय की है. 1834 में उन्होंने स्वस्थ संतान के लिए प्रार्थना की, और उनकी यह इच्छा पूरी हुई. इसके बाद, 1841 में नाव पलटने की घटना के बाद लेडी अवबाई ने सरकार को 1.5 लाख रुपये दिए ताकि एक सुरक्षित मार्ग बनाया जा सके, जिसे आज हम माहिम कॉज़वे के नाम से जानते हैं.
माउंट मैरी बेसिलिका के आंतरिक गर्भगृह और मूर्ति का हाल ही में जीर्णोद्धार किया गया है. वसई के सेक्वेरा बंधुओं ने इस कार्य में मेहनत की. रेक्टर फादर वर्नोन अगुइयार और वाइस रेक्टर फादर सुंदर अल्बुकर्क के अनुसार, उन्हें मूल कैनवास पेंटिंग मिली, जिसमें मदर मैरी शिशु यीशु को गोद में लिए हुए दिखाई देती हैं और उनके चारों ओर देवदूत एवं संत हैं.
इस प्रकार, माउंट मैरी बेसिलिका और बांद्रा मेला न केवल धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व रखते हैं, बल्कि मुंबईवासियों के लिए सदियों पुरानी भक्ति, श्रद्धा और ऐतिहासिक परंपराओं का जीवंत प्रतीक भी हैं.
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